मृगतृष्णा



इंसान कोई पेंग्विन तो नहीं जो बर्फ की चट्टानों पर घोंसला बनाये और अंडे दे
इंसान ध्रुवीय भालू भी नहीं 
जो रेगिस्तानी बर्फ़ीले समंदर में शिकार करे
क्यों फिर वह जाता है
अपने खेत खलिहान दालान छोड़ के
भटकने
बग़दाद से समरकंद
मैड्रिड से मच्छु पिच्छु
बामियाँ से अनुराधापुरा
हाथ में बाइबिल, त्रिपिटक और दास केपिटल लिये हुए?
मंगल ग्रह की घाटियों में ऊष्णता आद्रता ढूँढने?
गगनचुंबी अट्टालिका, भूमिगत रेल और परमाणु बम का निर्माण करने?
और फिर व्यथा उसकी!
शांति, समृद्धि और समानता जब नहीं मिलते उसे
तो क्यों नहीं वो लौट आता है खेतों खलिहानों और दालानों में वापस?


Comments

Adarsh said…
👍🏼👌🏼👌🏼
Savita said…
बहुत ही मार्मिक! 👌
Savita said…
This comment has been removed by the author.
"Using these powerful words, your poem can lead readers on a journey of introspection and discovery. Each word evokes deep emotions and thoughts, inviting readers to explore the complexities of life and existence. Craft your poem with care, allowing these words to illuminate the depths of human experience."
Varuna said…
शायद उन्हें अपनी तलाश है या किसी की तलाश नहीं है , बस अनजान को जानने की ललक है।
Punya said…
We sense the same things, some pause to experience them and some carry the experience and think deeper. Rare is the breed that finds time to out those thoughts to paper.

Well written my friend, looking forward to more.

pallavi_13 said…
इंसान तृष्णा, इच्छा, दौड़ ऊंचाई की, no1 बनने की गेम जिंदगी के खेल में यह सब डाउनलोड करके इसमें बस अपने बटन ऑन करके एक निर्जीव प्राणी बन जीए जा रहा है। कब एक भूचाल आयेगा की सब स्वाहा हो जाएगा इसी उधेड़बुन में हम जैसे कुछ इंसान ऐसे अपनी व्यथा सियाहि से उतार देते हैं। दिल को छू लेने वाली लेख।

Popular Posts